अवतार मीमांसा- दश अवतारों के विषय में
ऊँ नमो परमतत्वाय शाश्वते नारायणे ओंकारेश्वर वासाय मायानन्दायते नमः
इस विश्व की परिवर्तनशील प्रकृति चक्र की ओर विचारपूर्वक जब हम देखते हैं, इसके परिभ्रमण गति में चतुर्युगमालिका स्वाभाविक घूमती हुई रहती है। इसे ही अध्यात्मविद पुरुषों ने सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग एवं कलयुग नाम से कहा है। घूमते हुए प्रकृति के चतुर्युग चक्र मे इस मानव जगत में अनेक बार उत्क्रांति एवं अपक्रांति के दृश्य दिखते हैं। यह उत्क्रांति का दृश्य ही धर्मस्थापना एवं धर्मसंचालन का समय है। अपक्रांति का दृश्य ही धर्मग्लानि अर्थात् मानवता का अनेक मत-पंथ-संप्रदायों मे विघटित होने का समय है। जब ऐसा भीषण धर्मग्लानि का समय उपस्थित हो जाता है और विश्व की मानवता टूटकर सैकड़ों-हजारों मत-पंथ-संप्रदायों मे विभाजित हो जाती है उस समय ही इस विखंडित मानवता को समन्वय के समावेश में जोड़ने के लिये एक महान लोकोत्तर विभूति युग संचालक विभूति इस मानव जगत में मानव शरीर धारण कर के आती है। अतः यह विश्वरूप परमात्मा ही विशेष विभूति के रूप में इस विश्व की एकात्मता का दर्शन बोध कराने के लिये, विघटित मानवता को समन्वय के समावेश में एवं धर्म की एकात्मता में जोड़ने के लिये मानव शरीरधारी अवतार के रूप में आता है। भगवान या अवतार एक शरीरधारी मानव विशेष ही रहता है। जब विश्व में मानव में मानवता विघटन के अनंत टुकड़ों में बँट जाती है, छोटे-छोटे भक्त, विभूतियाँ और सन्त भी इसको एकात्मता के समन्वय में जोड़ने के लिये प्रयत्न करते हैं परन्तु सबके प्रयत्न जब निष्फल हो जाते हैं सफल नहीं होते तब यह विश्वरूप परमात्मा स्वयं ही मानव शरीर के रूप में अवतार धारण कर के आता है।
इस प्रकार पूर्व इतिहास से जब हम देखते हैं चतुर्युगमालिका में इस विश्वरूप परमात्मा ने दस बार असाधारण कोटि की विशेष विभूति, युग संचालक विभूति के रूप में अवतरण लिया। जिनके नाम पूर्व इतिहास में एवं पुराणादि ग्रंथों में निम्न प्रकार से हैं।
1. मतस्य
2. कूर्मि
3. वाराह
4. नरसिंह
5. वामन
6. परशुराम
7. राम
8. कृष्ण
9. बुद्ध
10. कल्कि
द्वापर युग तक विश्वरूप परमात्मा ने इस विघटित हुये मानव जगत को एकात्मता तथा समन्वय के समावेश में जोड़ने के लिये द्वापर युग के अन्त में आठवाँ अवतार कृष्ण के नाम से लिया था। भगवान श्रीराम विश्वरूप परमात्मा के सातवें अवतार थे अतः अवतार शरीरधारी मानव विशेष ही होते हैं।
शब्दज्ञानी कहलाने वाले लोगों ने अवतारों के विषय में भी अनेक प्रकार की भ्रमग्रस्त कल्पनायें मानव जगत में फैला रखी हैं।
मतस्य, कूर्मि, वाराह तथा नरसिंह अवतारों को क्रमशः मछली, कछुआ, चतुष्पाद शूकर जानवर तथा नरसिंह को आधा आदमी-आधा शेर जानवर के स्वरूप में बताया है। परन्तु मतस्य, कूर्मि, वाराह तथा नरसिंह अवतार आदि मानव के ही क्षत्रियों के कुल के नाम हैं। अर्जुन का समधी राजा विराट मतस्य कुल का क्षत्रिय था। आज भी हमारे देश में कूर्मि अवतार के वंशज लोग हैं जो आज भी भारत में पाये जाते हैं। वाराह भी क्षत्रियों का ही कुल है ये जानवर नहीं है। इस प्रकार अवतार मानव शरीरधारी ही होता है।
द्वापर युग के पश्चात कलियुग के पाँच हजार वर्ष जाने पर महामुनि वेदव्यास जी ने पुराणों में जो सामान्य भविष्य निर्देशित किया था।
भागवत महापुराण के प्रथम स्कन्ध मेः
ततः कलौ समप्रवृते संमोहाय सुरद्विषाम ।
बुद्धौ नाम्नाSजिनसुत कीकटेषु भविष्यति।।
जब कलियुग पूर्ण ऐश्वर्य में आ जायेगा, देवी संपत्ति को दबाकर आसुरी संपत्ति हावी हो जायेगी। उस समय कलियुग के पाँच हजार वर्ष जाने के बाद नर्मदा तट पर विश्वरूप परमात्मा का नवम् बुद्ध अवतार होगा।
परन्तु बुद्ध अवतार की पहचान महामुनि वेदव्यास जी ने पुराण ग्रंथों मे ग्रंथित कर रखी है। स्कन्ध पुराण के रेवा खण्ड में, वायु पुराण में, भविष्य पुराण में यह अवश्य ही बताया गया है कि कलियुग के पाँच हजार वर्ष जाने के बाद नर्मदा नदी मुक्तिदायिनी होगी एवं कलियुग के पाँच हजार वर्ष जाने के बाद नर्मदा तट पर विश्वरूप परमात्मा का नवम् बुद्ध अवतार होगा।
स्मरणात् जन्मजम पापं दर्शनात् त्रिजन्मजम।
स्नानात् जन्म सहस्त्रेतु, हन्तौ रेवा कलियुगे।।
साथ-साथ यह भी बताया गया है कि,
युगधर्मे परावृते काले च सतजो प्रभु।
कल्पौं धर्म व्यवस्थानम् जायते मानुशेषवी।।
जब यह युगधर्म परावृत होकर अधर्म मे प्रवृत हो जायेगा उस समय मनुष्य शरीर मे बुद्धावतार आयेगा।
हमने गौतम को बुद्धअवतार मान लिया है वो ईश्वर को नहीं मानने वाले थे। जो व्यक्ति ईश्वर को नहीं मानता है उसको ईश्वर का अवतार मान लेना यह अत्यन्त विसंगत बात है। इतिहास में अनेक बुद्ध हो गये हैं। कौन बुद्ध कहाँ हुआ? किस संवत्सर में हुआ? उनके माता पिता का क्या नाम था? कितनी आयु जीवित रहकर किस स्थान में देह त्यागा? यह इतिहास बुद्ध अवतार निर्णय नामक पुस्तक में लिखा हुआ है जो केन्द्रीय अध्यात्म विज्ञानशाला ओंकारेश्वर से प्रकाशित है।
जो बुद्धि प्रधान होता है उसको बुद्ध या प्रबुद्ध कहते हैं। बुद्धि प्रधान होने के कारण वह कुछ न कुछ लोकोपकार के कार्य करता ही है, इसलिये समस्त बुद्ध हमें आदरणीय हैं।
परन्तु विश्वरूप परमात्मा का कलियुग के पाँच हजार वर्ष जाने के बाद नर्मदा तट पर जो नवम् बुद्ध अवतार होगा उसकी पहचान अलग से ही महामुनि वेदव्यास ने रखी है।
यदा सूर्यस्य चन्द्रश्च, यदा तिष्ठौ वृहस्पति।
एक राशौ समेश्यन्ति, प्रपश्यति तदात्मतौ।।
जिस समय सूर्य, चन्द्र और गुरु ये तीनो गृह पुष्य नक्षत्र के एक राशि मे इकठ्ठे हो जायेंगे उस समय सतयुग प्रारम्भ होगा और सतयुग प्रारम्भ करने के लिये अवतार आयेगा।
अतः इस प्रकार यह प्रमाणित होता है कि भगवान श्री मायानन्द चैतन्य जी ही विश्वरूप परमात्मा के नवम बुद्ध अवतार हैं। अवतार अपने से पूर्व के अवतारों के सिद्धान्त का मंडन ही करता है, खंडन नही करता। अवतार का कोई नया मत-पंथ नहीं चलता। इसलिये न तो भगवान राम का राम-पंथ चला और न ही भगवान श्रीकृष्ण का कृष्ण-पंथ चला। अतः बुद्ध का भी कोई बुद्ध-पंथ या बौद्ध-पंथ नहीं चल सकता है क्योंकि पूर्व अवतारों ने जिस दिव्यचक्षु योग से यह विश्व ही विश्वरूप परमात्मा है इसका प्रत्यक्ष, यथार्थ दर्शनयुक्त समन्वय बोध कराया था उसी परम्परा को पुनः आविष्कृत करके यह विश्व ही विश्वरूप परमात्मा है और अपने-अपने स्वकर्म द्वारा निस्पृह भाव से, अनासक्त भाव से इस विश्वरूप परमात्मा की सेवा करना ही अनन्य भक्ति है, इन दो समस्याओं का निराकरण अवतार द्वारा किया जाता है।
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