विश्व ही सनातन सत्य है। मानव और विश्व की अखण्डता, एकात्मता प्रत्यक्ष है। अंश अंशी भाव से विश्व ही सब मानवों का यथार्थ और शाश्वत सत्य है। श्रीमद्भगवतगीता में इसी सनातन सत्य को समझने समझाने का ज्ञान विज्ञान है। इस सिद्धान्तिक सार्वभौमत्व के कारण ही संसार के विवेकी पुरुषों ने गीता को स्वीकार किया। लेकिन वे ज्ञान की सीमा तक ही पहुँच सके। ज्ञान के आगे की सीढ़ी जो विज्ञान (सत्य की प्रत्यक्षानुभूति) है वह सद्गुरुगम्य होने से उसका रहस्य उन्हें प्रत्यक्ष न हो सका। इसी कारण दुनियाँ के दार्शनिकों का ज्ञान परोक्ष ज्ञान (शब्द ज्ञान) तक ही सीमित रहा।
गीतोक्त- ज्ञान विज्ञानसहितम की योग-युक्ति (दिव्यचक्षु) का उन्हें प्रत्यक्ष यथार्थ दर्शन न होने से उन्होने धर्म के नाम पर अपना-अपना निजी मत, पंथ, संप्रदाय स्थापित किया। इसके परिणाम स्वरूप दुनियाँ की मानवता धार्मिक संप्रदाय, पंथ, तथा मत-मतान्तरों में शतशः, सहस्त्रशः खंडित हो गयी। सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार के द्वन्द में फँसकर भारत अपनी वैभवशाली वैदिक गौरव-गरिमा पूर्णतः खो बैठा था। आर्यों की भौतिक, आध्यात्मिक और राजनैतिक ऐश्वर्यशाली परम्परा लुप्त होकर कर्मकाण्ड, शाब्दिक वेदांत तथा भगोड़े सन्यास ने भारत को पुरुषार्थहीन बना दिया था। दांभिकता, सांप्रदायिकता, अंधविश्वास तथा कालबाह्य दुष्ट रूढि़यों की जंजीर में जकड़ा हुआ भारत परतंत्र, दीन-हीन हो किसी चैतन्यमय रोशनी की प्रतीक्षा कर रहा था।
सतयुग का उषःकाल
मनुष्यकृत मत-मतान्तरों का तथा साम्प्रदायिकता का स्वरूप जैसे-जैसे भीषण होता गया वैसे-वैसे इन साम्प्रदायिक रुढ़ियों की गुलामी से छुटकारा पाने के लिये मानवीय मन विद्रोह करने लगा। इस विद्रोह का दृश्य स्वरूप उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तथा बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में संसार के सभी देशों में विशेष प्रखरता से दृगोचर हुआ। धार्मिक, सामाजिक, आध्यात्मिक तथा राजनैतिक आदि सभी क्षेत्रों में क्रांतिकारी आंदोलन हुए। समय की आवश्यकता के अनुसार किसी कालावधि में संसार के हर कोने में, संसार के हर क्षेत्र में अनेकानेक प्रभावशाली विभूतियों का आविर्भाव हुआ। उन महापुरुषों ने स्वसामर्थ्यानुसार मानवता की इस दैन्यावस्था को सुधारने की भरसक कोशिश की। लेकिन इन तत्कालिक सुधारणाओं से संसार के विवेकी पुरुषों की यथार्थ तथा स्थायी स्वतंत्रता तथा शाश्वत सुख-शान्ति की इच्छा तृप्त न हो सकी। मूलभूत रोग निदान तथा सुयोग्य चिकित्सा न होने के कारण मानवता की प्रकृति विकृति मुक्त न हो सकी। सामाजिक विघटन बढ़ता ही गया। दुनियां के सुधारकुधार में लगे हुए तर्कप्रधान विविध आंदोलन विफल होते ही रहे। जन सर्वत्र त्राहि-त्राहि बोल रहे थे। यथार्थ स्वराज्येछु नरों में यह स्वाभाविक प्रेरणा हो रही थी- “क्या इस मनुष्यकृत सांप्रदायिक गुलामी और अशांति को मिटाने का कोई निश्चित उपाय नहीं है? संसार के समस्त नरों की यह स्वाभाविक अंतःस्फूर्ति ही पूंजीभूत होकर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में एक युग प्रवर्तक नरोत्तम के रूप में अवतीर्ण हुई। यह नरोत्तम ही नारायण भगवान श्री मायानन्द चैतन्य जी हैं। भगवान श्री मायानन्द चैतन्य जी ने वैदिक ज्ञान विद्या को पुनरुज्जीवित किया। गीतोक्त दिव्यचक्षु (योग-युक्ति) को शास्त्रीय प्रयोग द्वारा सिद्ध कर सदगुरुत्व का तथा अवतार कार्य का परिचय दिया। भवसागर से पार करने वाली “विज्ञान-नौका” मुमुक्षु के सन्मुख लाकर खड़ी कर दी। कलियुग की भीषण धर्मग्लानि को हटाने के लिये वर्णधर्म (स्वधर्म, स्वकर्म) का रहस्य सबके सामने अतिसुगमता तथा स्पष्टता से प्रगट किया। तमप्रधान घोर अंधकार में सुख शांति के लिये तरसने वाले जगत को दिव्यचक्षु की रोशनी देकर सतयुग का उषःकाल घोषित किया। धन्य हैं वे नर जो इस उषःकाल में नारायण की दिव्य लीला देख सके तथा उस सतयुग प्रवर्तक कार्य में सहभागी हो सके।