जन्म और बाल्यावस्था
नवम् बुद्ध अवतार भगवान श्री मायानन्द चैतन्य जी का जन्म ग्वालियर राज्यान्तर्गत उमरी ग्राम में विक्रम संवत 1925 दिनांक 5नवम्बर 1868 को अगहन वदी पंचमी की रात को समय 1 बजे (कलयुग के पांच हजार दस वर्ष के कालमान में) एक संस्कार सम्पन्न देसाई कुल में हुआ। उनके पिता लक्ष्मण राव देसाई ग्वालियर राज्य के एक कत्र्तव्यदक्ष तहसीलदार थे। माता का नाम आनंदीबाई था। भगवान का पूर्वाश्रम का नाम रामचंद्र था। प्यार से बचपन में उन्हे ’’भाउ’’ कहते थे। उनका गौरवर्ण, कांतिमान शरीर सुडौल और वज्रसमान सुदृढ़ था। नेत्र तेजस्वी थे। सदैव प्रसन्नवदन रामचंद्र सभी का आकर्षण थे। अपने चार भाइयों में वे बड़े थे। पिता लक्ष्मणराव जी अपनी तेजस्विता तथा प्रमाणिकता के कारण अधिक काल तक सरकारी नौकरी में नहीं रह सके। इसलिये उस समय परिवार की आर्थिक क्षमता ’’भाउ’’ को उच्च विद्या विभूषित करने की नहीं थी। ’’ भाउ’’ की शालेय शिक्षा ग्वालियर में हुयी। ’’भाउ’’ के प्रतिभासंपन्न, प्रज्ञासंपन्न और प्रसन्न व्यक्तिमत्व के कारण वे शिक्षको को भी बडे़ प्रिय थे
अवतार कार्य की अंत:स्फूर्ति 
भविष्य के महान अवतार कार्य की सूक्ष्म जागृति रामचंद्र को पूर्व से ही थी। प्रकृति ने उनको इस कार्य की पूर्ण अनुकूलता प्राप्त कर दी। बाल्यावस्था से ही गीता में उल्लेखित ’’दिव्यचक्षु’’ क्या है यह जानने की उनकी प्रबल आकांक्षा थी। इसी खोज में उन्होने अनेकानेक ग्रंथो का परिशीलन किया। अनेक विद्वान, शास्त्री, पंडित, महात्मा, महंतो को इस विषय में प्रश्न किये। किन्तु यह रहस्यमय योगयुक्ति ’’स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप’’। इस गीतोक्त वचनानुसार नष्ट हो चुकी है यह उनका पूर्ण निश्चय था।
सद्गुरू से मिलन
सन् 1885 में रामचंद्र को पिताजी के साथ वाराणसी जाने का अवसर प्राप्त हुआ। वहां गंगा किनारे दशाश्वमेध घाट पर एक अत्यन्त वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, महान संत स्वामी श्री विशुद्धानन्द सरस्वती जी से अल्प समय तक ही उनका सत्संग हुआ। विशुद्धानन्द जी के ब्रह्मतेज से प्रभावित हो नतमस्तक होते हुये रामचंद्र ने बडे़ ओजस्वी वाणी में उनसे प्रश्न किया -- ’’ सब लोग शब्दों मेें ज्ञान गा रहे हैं, परमात्मा का प्रत्यक्ष बोध कोई नही करता; क्या आप गीता में उल्लेखित ’’दिव्यचक्षु’’ का रहस्य जानते हैं? और यदि जानते है तो क्या आप मुझे वह ’’दिव्यचक्षु’’ प्रत्यक्ष दे सकते हैं?’’ सोलह वर्ष के युवक का यह मर्मशोधक तेजस्वी प्रश्न सुनकर विशुद्धानन्द जी का हृदय कृतार्थता से पुलकित हो उठा। ऐसे अधिकारी विभूति की प्रतीक्षा में ही उन्होने अपना जीवन यज्ञ अब तक प्रज्ज्वलित रखा था। सामने पड़े हुये एक कंकड़ का अधिष्ठान रखते हुये स्वामी विशुद्धानन्द जी ने दो तीन मिनट की अवधि में ही दिव्यचक्षु के रहस्य का उद्घाटन कर रामचन्द्र को मनोवांछित दिव्यदृष्टि का अनुभव प्रदान किया तथा उनके अवतारित्व की ओर संकेत किया। ’’दिव्यचक्षु’’ का त्रिपुटी द्वारा संक्षेप में भेद प्रगट कर कहा-- ’’ इस बीज का वृक्ष कर विश्व में स्वयं
अपना पुरुषोत्तम पद सिद्ध करो’’। इस अनुभूति से भगवान का अंग-अंग दिव्य आनंद से पुलकित हुआ, मानो सहस्त्र सूर्यों का तेज उनके विशाल और आकर्षण नेत्रों में दीप्तिमान होने लगा। सद्गुरु अनुभव से कृतार्थ हो स्वामी विशुद्धानन्द जी को अपने हृदयसिंहासन पर प्रतिष्ठित कर वे पिताजी के साथ वापस घर लौटे।
दिव्य पुरूषार्थ
आपका पूर्वाश्रम का अधिकांश समय ग्वालियर में ही व्यतीत हुआ। पारिवारिक जिम्मेदारी के कारण आपने कुछ समय शासकीय सेवा की। लेकिन स्वतंत्र प्रज्ञा के रामचंद्र का मन सरकारी नौकरी में रममाण होना भला कैसे संभव था। नौकरी छोड़कर उन्होने ग्वालियर में सन् 1892 में अपना स्वतंत्र फोटो स्टूडियो तथा देसाई आर्ट प्रिंटिंग प्रेस निर्माण किया। वे स्वयं अच्छे चित्रकार तथा कवि भी थे। कलात्मक ढंग से छायाचित्रण करने से इस व्यवसाय में वे अल्पावधी में ही वे मशहूर हो गये।
धन्यो गृहस्थाश्रम
सन् 1888 में उनका विवाह जानकीदेवी से हुआ था। उन्हे केशवराव, श्रीधरराव, नामक दो पुत्ररत्न तथा द्वारका नामक कन्यारत्न हुये। वैदिक आर्यों के यथार्थ गृहस्थाश्रम का आदर्श उन्होने जनता के सामने रखा। इ.स. 1884 से 1909 तक उन्होने गृहस्थाश्रम को अपने पुरुषार्थ से संपन्न करते हुये सद्गुरु प्रदत्त दिव्यदृष्टि का मनन किया। व्यवसाय में रहते हुये उन्होने सभी वेद, उपनिषद, शास्त्र, पुराण, कुरान, बायबल धर्मग्रंथों का सूक्ष्म अध्ययन निरीक्षण किया। तुलसी, कबीर, ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास, आदि संतो के वाङमय का भी गहरा अभ्यास किया। काव्य, नाटक, संगीत, अभिनय आदि सभी विद्या और कलाओं से उनका दिव्य व्यक्तित्व सर्वांगपरिपूर्ण था। उन्हे मराठी, हिंदी, संस्कृत, गुजराती तथा उर्दू भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। अंग्रेजी तथा पर्शियन भाषा का भी उनका अभ्यास था। खेलकूद में भी वे पीछे नहीं थे। सभी क्षेत्रों में नेतृत्व करने की उनकी क्षमता थी। गृहस्थाश्रम के दो तप दिव्यचक्षु के मनन मे व्यतीत करते हुये उन्हें अपने जीवन-कार्य का स्पष्टता से बोध हुआ तथा सद्गुरू स्वामी विशुद्धानंदजी के संकेतानुसार अपने अवतारित्व के अंतःस्फूर्ती को कार्यरूप में परिणित करने के लिये उनकी सर्व प्रकार की पूर्वतैयारी हो चुकी थी।
अवतार कार्य का प्रारम्भ
25 मार्च 1909 की वैशाख पूर्णिमा को परिवार की संपूर्ण व्यवस्था कर, कुटुंब की प्रमुख जिम्मेदारी अपने कनिष्ठ भ्राता श्री नारायणरावजी देसाई पर सौंपकर अवतारकार्याथ उन्होंने गृह त्याग किया। स्वयंस्फुरित भावनानुसार बुद्ध गया को उन्होने गृहस्थाश्रम ईश्वरार्पण कर अपने अवतार कार्य को प्रारंभ किया।
महर्षि वेदव्यास की भविष्यवाणी
कृष्णद्वैपायन श्री व्यासजी स्कंदपुराण, भविष्यपुराण, तथा भागवत पुराण में कलियुग में होने वाले नवम् बुद्ध अवतार का सामान्य भविष्य कथन किया है।
ततः कलौ संप्रवृत्ते संमोहाय सुरद्विषाम्।
बुद्धो नाम्नाऽजिनसुतः कीकटेषु भविष्यति।।
(भागवत 1-3-23)
कलियुग पूर्ण प्रवृत्त हो जाने के बाद देवद्वैषी लोगों के संमोहात ’बुद्ध’ नामक अवतार (जैन सुत नहीं) सामान्य गरीब कुल में उत्पन्न होगा। इस ईश्वरावतारी बुद्ध के कार्य स्वरूप के विषय में व्यास जी लिखते हैं
’देवद्विषां निगमवत्र्मनि निष्ठितानां’
पूर्भिर्मयेन विहिताभिरदृश्यतूर्भिः।
लोकान् घ्नतां मतिविमोहमतिप्रलोभं
वेषं विधाय बहु भाष्यत औपधम्र्यम्।।
(भागवत 2-7-37)
भावार्थः- सामान्य लोगों का बुद्धिभेद करने वाले बाह्यवेशधारी शद्वपंडितों को-वेदानुयायी सज्जन पुरुषों को तथा देवद्वेषी वेदनिंदकों को भगवान बुद्ध औपधर्म(दिव्यचक्षु) मुक्त उपदेश करेंगें।
व्यास जी ने यह भी लिखा है कि भगवती रेवा(नर्मदा) नदी कलियुग में मुक्तिदायिनी होगी।
’गंगा कनखले पुण्या कुरुक्षेत्रे सरस्वती
ग्रामे वा यदिवाऽरण्ये पुण्या सर्वत्र नर्मदा।।’
(स्कंद पुराण, रेवाखंड, अध्याय 103)
’स्मरणात् जन्मजं पापं दर्शानात् त्रिजन्मजम्।
स्नानात् जन्मसहस्त्रेषु हन्ति रेवा कलौ युगे।।’
(भविष्यपुराण)
इसका कारण भी यही है कि रेवाखंड में बुद्धावतार के प्रचंड दिव्यचक्षु (औपधर्म) प्रबोधन कार्य से रेवाक्षेत्र पवित्र होकर नर्मदा मुक्तिदायिनी होगी।
भारत, वनपर्व, भागवत स्कंद 12, तथा विष्णु पुराण अंश 4 में सतयुग प्रारम्भ होने का सामान्य भविष्य कथन किया गया है।
’यदा सूर्यश्च चन्द्रश्च यदा तिष्ठो वृहस्पति।
एक राशौ समेश्यन्ति प्रपश्यति तदा कृतौ।।’
इसके अनुसार यह ग्रहयोग भी सन् 1942 के 2 अगस्त को हजारों वर्षों बाद आया है। यह भी नवम् बुद्धावतार एवं सत्युग प्रवर्तन के सामान्य भविष्य गूढ़ रहस्य का निर्देशन करता है।
अमरकंटक की अलौकिक तपश्चर्या
व्यासदेव की इस सामान्य भविष्यवाणी की यथार्थता सिद्ध करने के लिये मानो भगवान श्री मायानंदजी ने भगवती नर्मदा के पावन तट पर अपनी अश्रुतपूर्व घोर तपस्या कर दिव्यचक्षु के शंखध्वनी से पूरा नर्मदा खण्ड जागृत कियां गृहस्थाश्रम ईश्वरार्पण करने के पश्चात् ’मायानंद ब्रह्मचारी ’ नाम धारण करके उन्होने नर्मदा के उद्गम स्थान अमरकण्टक के घनघोर जंगल में कपिलधारा के पास कपिल गुफा में प्रवेश कर छः मास तक सद्गुरुप्रदत्त दिव्यचक्षु योग पर घोर तपरुप मनन-चिन्तन कर साक्षात्कार तथा समाधी की अवस्था प्राप्त की। भगवान ने अमरकंटक में जो काल बिताया वह उनके जीवन में विशेष महत्व का है। कारण स्वामी विशुद्धानन्दजी से जिस ब्रह्मविद्या की उन्हे प्राप्ति हुयी थी उसका सूत्रमय परिस्फोट अर्थात पुरुषोत्तम योग का पूर्ण आविष्कार (साक्षात्कार) उन्हे इसी कालावधी में हुआ। तथा यह साक्षात्कार दूसरों को करा देने की भी सरल युक्ति उपलब्ध हुई और उन्हे अतिआनंद हुआ। भगवान को यह ब्रह्मनन्दोन्माद तीन सप्ताह तक रहा। इस आनंद की स्थिति में वे अपने आसन पर से हिले नहीं। और उन्माद का लय होने के बाद उन्होने शांत रुप धारण किया । इस प्रकार सद्गुरु से जो विद्या भगवान ने प्राप्त की थी उसी की अंतिम श्रेणी का विकास तपःसाधन से पूर्णत्व को पहुंचने के पश्चात् उन्होने कपिल गुफा से अपना आसन हिलाया।
नर्मदा परिक्रमा
तत्पश्चात् उन्होने भगवती नर्मदा की परिक्रमा शुरु की जो दि0 12.01.1911 को याने लगभग 15 महीनों में पूर्णकर वे ग्वालियर आये। उन्होने वहां दिव्यदृष्टी का प्रथम उपदेश दिया था इसी कालावधि में ’दिव्यदृष्टी’ की हिन्दी प्रथमावृत्ती प्रकाशित की गयी। दूसरी परिक्रमा दि0 16.01.1912 से प्रारम्भ कर 14.02.1913 में समाप्त की। इस परिक्रमा में दिव्यचक्षु के उपदेश से संपूर्ण नर्मदा खण्ड जाग उठा तथा नर्मदा अपने योगैश्वर्य को प्राप्त कर यथार्थता से मुक्तिदायिनी हुई। परिक्रमा के कालावधि में उन्होने परिक्रमा वासियों की सुविधा के लिये नर्मदा पंचांग का ग्रंथ लिखकर प्रकाशित भी किया। नर्मदा परिक्रमा का उद्देश्य दिव्यचक्षु योग के प्रचार-प्रसार द्वारा आगामी परस्पर सुख-शांतीमय दृश्य दिखे इसलिये केन्द्रीय अध्यात्म विज्ञानशाला स्थापन हेतु स्थान का चयन करना था।
भारतभ्रमण तथा प्रचंड प्रचारकार्य
’’परित्राणाय साधूनां विनाशायच दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।’’
(गीता, अध्याय 4 श्लोक 8)
इस विश्वरूप परमात्मा के अवतारी कार्य-योजना हेतु 1915 से 1922 तक उन्होने दिल्ली, आगरा, मथुरा, उज्जैन, ग्वालियर, पुष्कर, कानपुर, इंदौर, अमलनेर, जलगांव, नासिक, पुणे, बाम्बे, जबलपुर, बिलासपुर, मंडला, सागर, होशंगाबाद, खंडवा, आदि भारत के सभी प्रसिद्ध स्थानों में दिव्यचक्षु विज्ञान के प्रचार-प्रसार हेतु भ्रमण किया। 11 मई 1922 में मध्यप्रदेश के परम पवित्र तीर्थ ओंकार-मान्धाता जिला पूर्व निमाड क्षेत्र में पुण्यसलिला नर्मदा के दक्षिण तट पर केन्द्रीय अध्यात्म विज्ञानशाला की स्थापना की।