धर्म का यथार्थ स्वरूप
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षतः ।। (महाभारत वन. 313 / 428)
धर्म का विनाश होने से मानवता का विनाश और रक्षण होने से सम्पूर्ण जगत की मानवता का रक्षण होता है। धर्म इस शब्द पर निरपेक्ष विवेक पूर्ण विज्ञान बुद्धि से सूक्ष्म विचार किया जाये तो अवश्य ही निर्विवाद यह ज्ञात होता है कि अनेक प्रकार के अंध-विश्वास और भ्रमित कल्पना के देवी-देवता, पूजा-पाठ, उपवास-व्रत, जप-तप आदि धर्म नहीं हो सकते, क्योंकि संसार की मानवता इसी कारण से सनातन धर्म के विपरीत अनेक प्रकार के मन कल्पित विघटनकारी मत-पंथ-संप्रदायों और जाति-पाँति, छुआ-छूत की विषमता से टूट कर सैकड़ों और हजारों टुकड़ों में छिन्न-भिन्न हो चुकी है। यद्यपि पूजा-पाठ, उपवास-व्रत, जप-तप आदि के यथार्थ अर्थ वेदों में विवेक विज्ञान बुद्धि युक्त कुछ दूसरे ही हैं, जो मानव जगत को एकात्मता में जोड़ने वाले हैं।
धारणात् धर्ममित्याहुः तत् धर्म धार्यते प्रजा । (महा.क.पर्व. 69 / 59)
“जो धारण होता है या धारण किया जाता है उसे धर्म कहते हैं। मानवों को धर्म धारण करना चाहिये।” इस सूक्ति पर विवेकपूर्ण विज्ञान बुद्धि से निरपेक्ष सूक्ष्म विचार किया जाये तो, सार्वदेशिक-सार्वकालिक-सार्वजनिक और अनुभव सिद्ध यह अर्थ निकलता है कि चराचर सृष्टि के रूप में दिखने वाला विश्व ही विश्वरूप परमात्मा, ब्रह्म, खुदा या गाड है। यह निश्चय (अपरोक्ष अनुभव) संसार के मानव मात्र की बुद्धि में धारण हो जाना ही धर्म है।