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दिव्यदृष्टि

दिव्यचक्षु योग की परम्परा के विषय में यदि विवेक पूर्ण विज्ञान बुद्धि से देखा जाये तो वेदकाल से लेकर पुराण, गीता, रामचरितमानस और भारत के समस्त संतों के बांड्गमय मे “दिव्यदृष्टि योग” की परम्परा के प्रमाण मिलते हैं।

सर्वप्रथम वेद में प्रमाण देखें।

“ तत् विष्णुः परमं पदं
सदा पश्यंन्ति सूरयः
दिवीव चक्षुराततम्"
(ऋग्वेद मंडल 1-22-20)

 परमात्मा विश्वरुप का परम दर्शन आत्मदर्शी विवेकीजन दिव्यचक्षुयोग से प्रत्यक्ष और सदैव करते रहते हैं। इस वेद प्रमाण की परम्परा से आगे के सभी प्रमाणों का मेल होना जरुरी है। जो प्रमाण वेद ( प्रत्यक्ष प्रमाण) से मिलेंगे वही पूर्ण रूप से सत्य और जो नहीं मिलेंगे वह स्वमत की कल्पना होने से त्याज्य है। दिव्यचक्षुयोग विश्वरुप दर्शन योग का नाम है। अन्य सर्व अर्थ भ्रम कल्पना है। वेदों से ही यह परम्परा पुराणों में आयी।

“दिवीव चक्षुराततम् योगिनां तन्मयातम् नाम्।
“विवेक ज्ञान दृष्टुम च तत् विष्णु परमं पदम् ।।
(विष्णु पु. अ. 2-8-104)

दिव्य (प्रकाश) चक्षु से प्रत्यक्ष देखकर जानकर योगीजन जिसमें तन्मयता प्राप्त कर लेते हैं वह विवेक ज्ञान से दिखने वाला परमात्मा विष्णु का परम पद है। संत तुलसीदास जी दिव्यदृष्टि योग की परम्परा के विषय में कहते हैं।

श्री गुरु पद नख मणि गण जोती।
सुमरत दिव्यदृष्टि हिय होती।।
उघरहिं विमल विलोचल हिय के।
मिटहिं दोष दुख भव रजनी के।।
सूझहिं राम चरित मणि माणिक।
गुप्त प्रगट जहां जो जेहि खानिक।।

तत्वदर्शी सद्गुरु से दिव्यदृष्टि प्राप्त होते ही अंतःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त) की विवेकमय निर्मल दृष्टि खुलती है, तभी गुप्त (निराकार) प्रगट(साकार) मय सर्वव्यापी सर्व रूप राम सूझते अर्थात् दिखने लगते हैं। संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर, संत नानक जी आदि सभी ने “दिव्यदृष्टि” से चराचर मय विश्वरूप परमात्मा का यथार्थ दर्शन होता है, यही कहा है-

चिन्मय अन्जन सुधीयले डीलां, तेणे अंजन गुणें दिव्यदृष्टि झाली
कल्पना निमाली द्वैत-अद्वैत।।
(संत तुकाराम)

अर्थ-  विज्ञानमय अंजल विवेक बुद्धि के नेत्रों में आंजने से दिव्यदृष्टि प्राप्त हो गयी, द्वैत की भ्रम कल्पना निर्मूल हो गयी। एकमेव अद्वितीय ही दिखने लगा।

दिव्यदृष्टि निवृत्ति ने दिघली,
अवधी च बुझाली विष्णु माया।।
विश्वरूप पाहे तब सम्भोवते रूपणे,
पाहे चदु काडे तोचि दिसे।।
अर्जुनी क्षरला अक्षर संचला,
विश्वरूप अबोला एक तत्वे।।
तीनो लोकी विश्वरूप, दिव्यदृष्टि दिघली,
वेद मार्गे मुनि गेले, त्याचे मार्गे चलिलो।।
न कलेची विषयांधा, ह्मणून उघड़ बोलिलो।।
(साखरे कृत संत ज्ञानेश्वर गाथा)

अर्थ-  दिव्यदृष्टि निवृत्तिनाथ ने दी थी, मायाकार द्वैताकार दृष्टि लय हो गयी। सर्व चराचर विश्वरूप ही दिखने लगा है। चारों ओर देखा तो सब ओर वही विश्वरूप है। हम उसी मार्ग से चले हैं जिस वेदमार्ग से मुनिवर्य जाते रहे विषयांध लोग नहीं जानते इसलिये स्पष्ट बोलना पड़ा है।

सद्गुरु मिले तो दिव्यदृष्टि होय।
सगुण निर्गुण थापे नांव,
दो मिल कीन्हों एक ही ठांव।।
(संत नानक देव जी)

अर्थ-  सद्गुरु मिलते ही दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है। जड़-चेतन, सगुण-निर्गुण का द्वैत भ्रमलय होकर एक नाम परमात्मा है यह दिखने लगता है।

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन।
नयन अमिय दृग दोष विभंजन।।
तेहि कर विमल विवेक विलोचन।
बरनऊँ राम चरित भवमोचन।।
(रामचरित मा. बा.का.)

अर्थ-  सद्गुरु चरण कृपा का ज्ञान रज रूपी अंजन विवेक रूपी नेत्रों में आंजकर उससे विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके भगवान विश्वरूपी राम का(उत्पत्ति, स्थिति, लयरूपी) चरित्र लिखकर वर्णन कर रहा हूँ।
इसी ज्ञान रूपी अंजन को विवेक रूपी नेत्रों में मुमुक्ष जनों को आंजकर निर्मल करके समझना पड़ेगा तभी यथार्थ दर्शन बोध होगा।

आद्यशंकराचार्य ज्ञानमय दृष्टि से जगत ही ब्रह्म है देखने को कहते हैं।

दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत।
सदृष्टि परमो दारा न नासाग्रवलोकिनी।।
(अपरोक्ष अनु. 116)

सप्तम अवतार भगवान श्री रामचन्द्र जी ने त्रेतायुग में और अष्टम अवतार भगवान श्रीकृष्ण जी ने “दिव्यचक्षुयोग” से ही विश्वरूप चराचर का दर्शन बोध देकर परम भक्त हनुमान जी, शबरी और अर्जुन को स्वकर्म द्वारा सेवा (अनन्य भक्ति) में प्रवृत्त कराया था ।

सो अनन्य जाके असि मति न टरई हनुमन्त ।
मै सेवक सचराचर रूप राशि भगवन्त ।।
(रामचरित मा. कि.का.3)

मम दर्शन फल परम् अनूपा । जीव पाय निज सहज स्वरूपा ।। (रामचरित मा.)

इहैकस्थं जगतकृष्णं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यत् द्रष्टुमिच्छसि ।।
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमननैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामिते चक्षुः पश्यमे योगमेश्वरम् ।।
(गीता अ. 11 श्लोक 7-8)

इस प्रकार वेदकाल से लेकर “संभवामि युगे युगे”  पुराण, गीता, रामायण और समस्त संतो के परमात्म तत्व दर्शन में दिव्यदृष्टि योग ही प्रमाण है। दिव्यदृष्टि कोई चमत्कार नहीं वरन् विश्व ही विश्वरूप परमात्मा है यह दर्शन कराने वाली सप्रयोग प्रत्यक्षीकरण की युक्ति है।

भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी गीता अ. 4 श्लोक 1-3 तक दिव्यदृष्टि की परंपरा निरूपित की है।

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान अहमव्ययम । विवस्वान मनवे प्राह मनुरिक्ष्वावेsब्रवीत ।।
एवं परंपराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।
स एवायं मयातेअद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः । भक्तोअसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।
(गीता अ. 4 श्लोक 1-3)

अष्टम अवतार भगवान श्रीकृष्ण जी के कहे अनुसार जब जब दिव्यचक्षुयोग का यथार्थ प्रयोग में प्रत्यक्ष दिखलाने की परम्परा का स्वरूपबोध नष्ट (लुप्तप्रायः) हो जाता है। तभी परमात्मा के तत्व दर्शन विज्ञान के नाम पर स्वमत का प्रतिपादन करने वाले अनेक मत, पंथ एवं संप्रदायों का निर्माण हो जाता है। जिस चराचर सृष्टि के रूप में दिखने वाले प्रत्यक्ष विश्वरूप की अनन्य भक्ति करना चाहिये उसी को राक्षसी, आसुरी, अत्यन्त विनाशकारी हिंसा से सताकर दुखी करने से विश्वरूप परमात्मा ही पुनः “पुरा अपि  नवा” भूले हुए पुरातन वस्तु दर्शन “दिव्यचक्षु”  का आविष्कार करने अवतार धारण कर आता है।

वर्तमान युग के 5010 वर्ष के काल जाने पर दस अवतार मलिका में के नवम् बुद्ध अवतार  नारायण भगवान श्री मायानन्द चैतन्य जी का अविर्भाव हुआ और गीताजी मे कहे सिद्धान्तानुसार (गीता अ. 4 श्लोक 1-3) दिव्यचक्षुयोग का आविष्कार कर विश्व ही विश्वरूप परमात्मा है यह प्रत्यक्ष बोध देकर अपना नवम् बुद्ध अवतार  पद सिद्ध कर धर्म स्थापना का कार्य किया ।

“दिव्यचक्षु” यह बोध यह यही योग की शक्ति ।
सत् ज्ञानान्जन है यही साक्षात्कार स्वरूप का ।।
(दिव्यदृष्टि का रहस्य 18)
सत्य ज्ञान दिया, परन्तु हठ से देखें उसे पंथ में ।
आज्ञा का मम पूर्ण भंग करके, जाने कहे संत में ।।
याहीं सो निज “औपधर्म” श्रुति का लेखी किया सो गही ।
जानो नाम सु दिव्यदृष्टि लखि के धारो उसी मे रहो ।।
(दिव्यदृष्टि अवतार दर्शन)

यही दिव्यचक्षु योग की युगों-युगों की परम्परा का इतिहास है। अध्यात्म ज्ञानीजन विवेक बुद्धि से लखि के, सात्विक अंतःकरण से धारण करेंगे यह हार्दिक सदेच्छा है ।

 
महादेव, शिव, महेश्वर, भगवान शंकर का यथार्थ स्वरूप

 

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